Monday 7 July 2014

“किसी के धंधे के बीच में नहीं बोलना चाहिए”


सुबह के साढ़े चार बज रहे हैं और मैं अभी तक जाग रहा हूँ. कल घटित हुई एक घटना शायद इसकी वजह है. ऐसा लगता है कि अगर मैं उसका ज़िक्र यहाँ करूँ तो सो पाऊं. बात कल दिन के लगभग 12 बजे के आस-पास की है. रविवार होने की वजह से सड़क पर चहल-पहल बाक़ी दिन के मुक़ाबले कम थी. जबलपुर शहर में छोटी लाइन के हाऊबाग़ रेलवे स्टेशन के पास से मेडिकल कॉलेज की तरफ़ जाने वाले एक आपे (सवारी ऑटो) में मैं बैठ गया. मेरे अलावा उस जगह से उसमें चार लड़के, एक वृद्ध महिला-पुरुष और एक किशोर एवं अन्य सवारियां भी चढीं. अन्य सवारियां दशमेश द्वार चौक पर उतर गयीं. आगे चलने पर शारदा चौक और एल आई सी के बीच वृद्ध महिला और किशोर उतरे. जिन्होंने दो सवारी के उसे दस रुपये दिए जबकि वो बीस रुपये की मांग कर रहा था. आम दिनों में भी इतनी दूरी का पांच रुपये ही किराया लगता है. खैर, उसने ज़्यादा बहस नहीं की क्योंकि कुछ दिन पहले ही उस महिला का बेटा चल बसा था. वो भी ऑटो ड्राईवर था. इस बात की जानकारी मुझे ड्राईवर और वृद्ध के बीच के वार्तालाप को सुनकर हुई. थोड़ी दूरी पर यानि शारदा चौक में वाहन रुकने पर मैंने उन लड़कों को असमंजस में देखा तो मैंने उनसे पूछ लिया कि तुम्हें कहाँ जाना है? उनका जवाब था मदन-महल किला. उन लड़कों से मेरा बात करना ड्राईवर को पसंद नहीं आया, उसने मुझसे कहा आपको कहाँ उतरना है, मैंने कहा सूपाताल. तो उसने थोड़े अनमने ढंग से हिदायत देते हुए कहा कि आप आगे उतर जाना. लेकिन मैंने उसे रोकते हुए लड़कों को शारदा चौक उतरने की हिदायत दी और किला का रास्ता बताया. ऑटो ड्राईवर और वो वृद्ध उनको ऑटो के सूपाताल से लौटने तक का इंतज़ार करने के लिए कह रहे थे ताकि वो उन्हें ऑटो से किला तक छोड़ सकें. जिसका मात्र पचास रुपये किराया होगा. इसके साथ उन्होंने यह भी जोड़ा कि लड़कों को किला तक पैदल नहीं जाना पड़ेगा. जबकि ये मुमकिन ही नहीं है. किला तक जाने के लिए सीढ़ियाँ चढ़नी ही पड़ती हैं. क्योंकि वो किला रानी दुर्गावती का है और पहाड़ की चोटी पर स्थित है. खैर, बात यहाँ ख़त्म ही हो रही थी कि लड़के ने चालीस रुपये किराया देते हुए कहा कि आपने तो पाँच रुपये की बात करके हमें बैठाया था. ड्राईवर अड़ गया कि ऐसी कोई बात ही नहीं हुई है. ड्राईवर थोड़ा उम्रदराज़ था और नशे में भी लग रहा था. मैंने उसे याद दिलाया कि उसे थोड़ी पहले उस महिला के साथ भी यही किया था चूँकि वो चार लड़के दूसरे शहर से आये थे इसलिए वो उन पर हावी होने की कोशिश कर रहा था. वो हो भी जाता लेकिन आज मैं ख़ुदको विवाद से दूर नहीं रख पाया. मैं बुरी तरह से ड्राईवर पर बरस पड़ा. अंत में उसने उन लड़कों से पाँच रुपये के हिसाब से ही किराया लिया. वो लड़के मुझे धन्यवाद देकर चले गए. आगे उसने मुझे सूपाताल स्टॉप पर उतार दिया. उतरते हुए उस वृद्ध ने मुझे कहा “किसी के धंधे के बीच में नहीं बोलना चाहिए”, मैंने उसे अपना रास्ता नापने की सलाह दी. ड्राईवर को मैंने दस का नोट दिया. अब मेरी बारी थी, उसने दस रुपये लेकर पांच रुपये चिल्ल्हर न होने की बात कही. मैंने पास की एक दुकान से पाँच रुपये लेकर उसे दे दिए. लेकिन जाते-जाते उसने एक बात कही जो मेरे पूरी रात जागने का कारण बन गयी “हम लोग कैसे गाड़ी चला रहे हैं, हम जानते हैं”... ये बात मुझे अभी तक कचोट रही है कि क्या मेरी वजह से उसका जायज़ नुक्सान हुआ?? उन बाहरी लड़कों का बीस रुपये ज़्यादा देने से क्या बिगड़ जाता?? क्या आज के उस पच्चीस रुपये के नुक्सान से उस ड्राईवर को या उसके परिवार को भूखा सोना पड़ा होगा?? क्या किसी के धंधे के बीच में वाक़ई नहीं बोलना चाहिए, चाहे वो बदसलूकी पर क्यों न उतर आये?? ये कुछ सवाल हैं जो रह-रह कर मुझे पता नहीं कब तक परेशान करेंगे!!! मैं हमेशा बड़ी से बड़ी बात यूँ ही भुला देता हूँ और इत्मीनान से सो जाता हूँ ...  लेकिन इस बार मुश्किल हो रही है.

Sunday 15 June 2014

प्रेम में फ्रेशर से दक्ष होने का सफ़र

कॉर्पोरेट लाइन में फ्रेशर्स तो आपने सुने ही होंगे, जी हाँ वही फ्रेशर्स जो अपने नए जॉब को सिर-माथे से लगाकर कर रखते हैं. ओवरटाइम मिले न मिले, लेकिन वो ज़रूर देर तक काम करते मिल जायेंगे. बॉस की हर आज्ञा का पालन करना इनका सर्वोपरि धर्म होता है. ये अपनी पहली जॉब को ही आख़िरी जॉब की तरह समझने लगते हैं. हालाँकि जीवन में कुछ भी आख़िरी नहीं होता जब तक कि जीवन का अंतिम दिन सामने न आ जाए. खैर, सीखने की ललक जो न करवाए वो कम है. वैसे कॉर्पोरेट की तरह प्रेम में भी फ्रेशर्स होते हैं. इन्हें आपने गाते हुए भी सुना होगा “मेरा पहला-पहला प्यार है ये”. पहली बार प्रेम में पड़ने का अवसर किसी को स्कूल में, किसी को कॉलेज में तो किसी-किसी को शादी के बाद ही नसीब होता है. देखा जाए तो फ्रेशर्स प्रेमी और पहला नया मोबाइल ख़रीदने वाले कस्टमर में ज़्यादा अंतर नहीं होता. क्योंकि नया-नया प्यार भी नये मोबाइल लेने की फ़ीलिंग जैसा होता है. आप शीघ्र-अतिशीघ्र उसके सारे फ़ीचर्स एक्सप्लोर कर लेना चाहते हैं. आपकी सुबह-दोपहर-शाम-रात सब कुछ उस मोबाइल के साथ या उसके बारे में सोचते हुए ही होती है. वो हर वक़्त आपके पास ही रहता है, भूल से अगर वो इधर-उधर हो जाए तो बेचैनी सी होने लगती है. कोई बड़ी बात नहीं है कि दिन में कई दफ़ा आप उसकी स्क्रीन अपनी शर्ट के बाज़ू से पोछते हुए पकड़े जाएँ. सबसे अहम् बात, आप अपना नया मोबाइल किसी के भी हाथ में देने से क़तराते हैं. आपको उससे इतना लगाव हो जाता है कि आप उसका साथ छोड़ने के बारे में सपने में भी नहीं सोचते. लेकिन कब तक??? अगला मोबाइल आने तक या इस मोबाइल के डेमेज होने तक? एक बार कोई भी चीज़ अनपैक होती है न तो याद रखिये कितना भी झाड़-पोंछ लो वो पुरानी पड़ ही जाती है. आप भी उसके सारी फ़ीचर्स एक्सप्लोर करने के बाद कुछ नया करने की तलाश में लग जाते हैं. हालाँकि पहला मोबाइल खोने-टूटने-गुमने का झटका बहुत करारा होता है. अगर आपसे आपके पहले मोबाइल के बारे में पूछा जाए तो आप उसकी कंपनी और कलर दोनों बता देंगे. अगले दो-तीन दफ़ा मोबाइल बदलने के बाद आपकी सारी आदतें लगभग बदल सी जाती हैं. क्योंकि आपको अनुभव हो चुका है, आप जानने लगते हैं कि लगाव ही आपके दुःख का कारण है. इसलिए आप केज़ुअली बिहेव करने लगते हैं. फिर प्रेम में आपका ग्राफ़ वक़्त के साथ-साथ धीर-धीरे प्रोग्रेस करता है. क्योंकि जल्दबाज़ी के सारे नुक्सान आप पहली ही उठा चुके होते हैं. 4-5 प्रेम प्रसंगों के बाद तो हालात काफ़ी बदल जाते हैं. ठीक वैसे जैसे कॉर्पोरेट में, क्योंकि चार-पांच साल बाद तो आप मैनेजर लेवल पर पहुँच जाते हैं. तब आप एक प्रोफ़ेशनल की तरह संयमित और पंक्चुअल हो जाते हैं. यानि आपको गीता-ज्ञान प्राप्त हो चुका होता है. आप समझ जाते हैं कि परिवर्तन संसार का नियम है. तुम जिसे अपना समझकर ख़ुश हो रहे हो बस वही तुम्हारे दुःख का कारण है. इस संसार में सब-कुछ नश्वर है. इतना ज्ञान प्राप्त होने के बाद आप स्वयं में एक “बहरूपिया” हो जाते हैं. आप जानते हैं कि आपको कब और किस क़िरदार में कौन सा रिएक्शन कितनी मात्रा में देना है. इस दक्षता को प्राप्त करने में आपने काफ़ी समय दिया होता है. कुछ लोग पूरा जीवन लगाकर भी प्रेम के आर्ट को नहीं समझ पाते और सिर्फ इसके साइंस में ही उलझकर रह जाते हैं. दक्षता का स्तर प्राप्त करने से पहले कोई भी अनुभवी एक समय में फ्रेशर ही रहा होता है. फ्रेशर से दक्ष होने का सफ़र काफ़ी जोख़िम भरा होता है. ये सफ़र भी जीवन का एक अहम् हिस्सा है. सभी को इस सफ़र की शुरुआत कभी न कभी करनी ही पड़ती है... अब आप बताईये, आप जोख़िम लेना कब शुरू करेंगे???

Thursday 12 June 2014

लंगड़े घोड़े...कैसे दौड़ें???

कुछ दिनों पहले यूँ ही चलते-फिरते मैं सेना के कुछ खिलाड़ियों से मिला था. दोनों ही खिलाड़ी "हैम्स्ट्रिंग" नामक इंज्यूरी से ग्रस्त थे. इंज्यूरी के बावजूद भी दोनों आयोजन का हिस्सा बनकर अपने-अपने खेलों की प्रतियोगिता में बेहतर प्रदर्शन करना चाह रहे थे. दोनों के जज़्बात काबिल-ए-तारीफ़ थे. ये पूरा आयोजन अगले स्तर के चयन के लिए हो रहा था. सबसे अंतिम पड़ाव में राष्ट्रीय स्तर की खेल प्रतियोगिता होगी, जिसका हिस्सा सेना के तमाम रेजीमेंट्स और जवान होंगे. इस आयोजन में बहुत सारे जवान हिस्सा ले रहे हैं, ज़्यादातर जवान इसी इंज्यूरी से पीड़ित हैं, उनकी देख-भाल के लिए आयोजन के दौरान एक फ़िज़िओथेरेपिस्ट वहां मौजूद रहेगा. उसकी सेवाएँ सिर्फ आयोजन के दौरान ही ली जायेंगी. ज़्यादातर शहरों में सेना के पास स्थायी तौर पर फ़िज़िओथेरेपिस्ट नहीं होते. उन्हें कुछ अवधि के लिए रखा जाता है. वैसे "हैम्स्ट्रिंग" जैसी इंज्यूरी को एक बार के ट्रीटमेंट से ठीक नहीं किया जा सकता. फिर आयोजन के वक़्त इस तरह की खानापूर्ती करके आयोजनकर्ता क्या साबित करना चाहते हैं?ये किस तरह की स्पोर्ट्समैनशिप है कि चोटग्रस्त या यूँ कहें कि सभी चोटग्रस्त धावकों को दौड़ाया जा रहा है?विशेषज्ञों के मुताबिक़ जो धावक ऐसे ट्रैक पर प्रैक्टिस करते हैं जहाँ टर्फ नहीं है, उन्हें इस इंज्यूरी का सामना करना पड़ सकता है. यहाँ भी वही हो रहा है क्योंकि ज़्यादातर धावक एक ही इंज्यूरी से पीड़ित हैं. चोटग्रस्त होते हुए भी ये सभी अपना बेहतर से बेहतर प्रदर्शन देना चाहते हैं. आगे जाकर इनमें से ही कुछ खिलाड़ी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खेल प्रतियोगिताओं में भारत का प्रतिनिधित्व भी करते हैं. भारत में खेल और खिलाड़ियों की स्थिति कैसी है, इससे सभी वाकिफ हैं. क्या इन खिलाड़ियों को शुरुआत से ही अच्छी सुविधायें मुहैया कराना शासन की ज़िम्मेदारी नहीं है. रक्षा विभाग हो या फिर अन्य कोई सामान्य विभाग, खेल और खिलाड़ियों के मामले में पारदर्शिता क्या ज़रूरी नहीं है? ऐसे मामलों में सरकार या जनप्रतिनिधियों का हस्तक्षेप कितना है? मीडिया भी ऐसे मामलों में दखल नहीं दे सकता. तो फिर जवाबदेही कौन तय करेगा? खेल-खेल में कौन सा खेल चल रहा है? क्यों अच्छे भले धावकों को लंगडा घोड़ा बनाया जा रहा है? फिर क्यों उनसे दौड़ने और जीतने की उम्मीद की जाती है? हो सकता है जायज़ सवालों का कोई जवाब न मिले लेकिन इस तरह से सवाल उठाने का मुँहतोड़ जवाब देने कोई न कोई ज़रूर आएगा. ऐसी मुझे उम्मीद है...इस तरह कहीं से तो शुरुआत होगी.

Wednesday 11 June 2014

धर्म ख़तरे में है!!!

किसी का भी धर्म आज से पहले ख़तरे में नहीं था, फेसबुक-ट्विटर-वॉट्स एप या सोशल मीडिया के आने से पहले तो बिलकुल भी नहीं. इन सबके आने के बाद जिन लोगों को धर्म से कोई लेना-देना नहीं था और जो धर्म की बारहखड़ी भी नहीं जानते हैं, उन्हें भी ये पता चल गया कि धर्म ख़तरे में है. सोशल मीडिया पर एक आपत्तिजनक फोटो या किसी धर्म के खिलाफ़ कमेन्ट साम्प्रादियक तनाव भड़काने के लिए काफ़ी होता है और इस तनाव के चलते हिंसा भी हो जाये तो समझिये कमेन्ट ने हक़ अदा कर दिया. क्या धर्म इतना कमज़ोर हो गया है कि किसी ने वर्चुअल दुनिया में उसे फूँक मारी तो उसका अस्त्तित्व ख़तरे में आ गया? इंसान का कान अगर कौआ ले जाता है तो इंसान पहले दो बार कान में हाथ लगाकर तस्दीक करता है कि वाक़ई में ऐसा हुआ है या नहीं. हर गली-नुक्कड़-चौराहे में ऐसे सैंकड़ों लोग हैं जो बेवजह खड़े होकर चिल्लाते रहते हैं कि भाईसाहब, कौआ आपका कान ले गया और वो भी यही चाहते हैं कि आप कौआ के पीछे दौड़ें न कि कान टटोलें. खैर, सोशल मीडिया को देखकर कभी-कभी वाक़ई में लगता है कि धर्म ख़तरे में हैं. इसके पीछे एक और कारण है. आप देखिये आपको धर्मों पर आधारित कई पेज और ग्रुप मिल जायेंगे, जो आपको आपके धर्म का वास्ता देकर कहेंगे कि इसे शेयर करो, लोगों तक पहुंचाओं. कुछ जगहों पर सर्वधर्म शान्ति और एकता के नाम पर लोग अपने-अपने धर्मों की श्रेष्ठता का बखान करने में लगे रहते हैं. वो अन्य धर्मों से क्यों अच्छा है ये भी बताएँगे. लेकिन अपने धर्म को श्रेष्ठ और गरिमामय  बनाए रखने के लिए असल ज़िन्दगी में वो शायद ही कुछ करते हों. असल ज़िन्दगी में तो वे लोग ट्रेफ़िक सिग्नल की रेड लाइट को भी क्रॉस करके निकल जाते हैं, नो पार्किंग में गाड़ी लगाते हैं, किसी के ऊपर हो रहे अन्याय को चुपचाप देखते रहते हैं, यहाँ तक कि ख़ुद पर भी अगर अन्याय हो रहा हो तो भी पुतले की भांति व्यवहार करते हैं. आप ही बताईये, कौन सा धर्म है जो कानून तोड़ने के लिए बाध्य करता है? कौन सा धर्म है जो अन्याय सहने का समर्थन करता है? आप ऐसे लोगों से क्या उम्मीद कर सकते हैं जो अपने धर्म को बड़ा तो कहते हैं लेकिन ख़ुद उसकी बातों पर अमल नहीं करते. ऐसे लोगों को देखकर दूसरे भी वैसा ही करते हैं. आप उन्हें टोक भी नहीं सकते क्योंकि ऐसा करने पर आपको टका सा जवाब मिलेगा - उसको देखो वो भी वैसा ही कर रहा है. कुल-मिलाकर आप ये कह सकते हैं कि ये दुनिया धर्मविहीन, अराजक लोगों से भरी पड़ी है. जिन्हें भीड़ में शामिल होकर हूटिंग करने में मज़ा आता है. भीड़ में ये लोग सुरक्षित रहते हैं. यही लोग जब सोशल मीडिया में आते हैं तो खुदको किसी नकली पहचान में छुपा लेते हैं. इन नकली लोगों की क्रिया पर असली लोग आये दिन सोशल मीडिया से लेकर सड़कों तक प्रतिक्रया देने में चूकते नहीं हैं और ये दोनों तरह के लोग सोशल मीडिया की आत्मा को साम्प्रदायिकता के रंग में रंगने की कोशिश में जुटे हुए हैं.

बाइक का सफ़र

वो जब सबके साथ होता है, वो बस होने का नाटक करता है. लेकिन जब वो "उसके" साथ होता है तब सिर्फ उसके ही साथ होता है. तब भी जब वो अपनी बाइक चला रहा होता है. जहाँ उसके पीछे "वो" बैठी होती है और "उसे" लगता है कि वो उसकी सुन ही नहीं रहा है. "वो" पूरे रास्ते लगातार बोलती रहती और वो उसे न के बराबर जवाब देता है. अक्सर "वो" उससे बाइक में इतना दूर बैठा करती है कि "वो" उसकी हाँ-हूँ भी नहीं सुन पाती. थक-हारकर कहने लगती कि "आप सुन नहीं रहे हैं". तब वो अपनी गर्दन हल्की सी घुमाकर "उसकी" कही हुई सारी बातें दोहरा देता था...

Tuesday 10 June 2014

अच्छा होना भी बुरा है!!!

अच्छाई को अच्छे लोगों से ही ख़तरा है. अच्छे लोगों की सबसे बड़ी कमज़ोरी है कि वो अच्छे लोगों पर भी शक़ करते हैं. क्योंकि बुरे लोगों पर तो उन्हें यक़ीन होता है कि वो कोई अच्छा काम नहीं करेंगे. लेकिन किसी अच्छे इंसान को देखकर उन्हें लगता है कि ये कैसे अच्छा हो सकता है? क्योंकि अच्छाई का पूरा ठेका तो हमारे पास है. इसी तरह चलता रहा तो एक दिन सिर्फ़ अच्छे लोग ही बचेंगे दुनिया में. अच्छाई ख़त्म हो जायेगी.